Tuesday, May 31, 2011

"पहाड़"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १.६.२०११ )
पैदा होन्दु ही मैंन देखि, पर उबरी नि बिंग्यौं,
क्यौकु छन यथगा बड़ा, आसमान छुणौकु होयाँ खड़ा,
दादा-दादी, ब्वै-बाब की, खुग्लि मा बैठि-बैठि हेरी,
उबरी मासूम बाळुपन, अर उम्र कच्ची थै सच मा मेरी,
आज सोचदु छौं मैं, पहाड़ सी मैंन क्या क्या सीखी?
बड़ु दिल, धैर्य, शालीनता, जीवन मा ऊंचा उठण की तमन्ना,
घमंड न हो मन मा, कैकु दिल न दुखौं जाणिक कभी....
समझदार होण फर मैंन पूछि, हे पहाड़! क्या देखि त्वैन?
अतीत सी मेरी जन्मभूमि मा, क्या माधो सिंह भंडारी जी भि,
गबर सिंह, चन्दर सिंह, दर्मियान सिंह, तीलु, अर सब्बि वीर भड़,
हे "पहाड़" तू जुगराजि रै, अर जन्म लेलि हमारी अगली पीढ़ी,
तेरी गोद मा, हैंसली खेललि, या मैं जगमोहन सिंह जयाड़ा,
गढ़वाळि कवि "जिज्ञासु" का मन की आस छ...
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Sunday, May 29, 2011

"तुमारा बाना"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २९.५.२०११)
मैंन कलम हाथ मा उठाई, कल्पना मा तुमारु ख्याल आई,
कुलदेवी भगवती चन्द्रबदनी, सरस्वती जी का आशीर्वाद सी,
हे मेरी प्यारी कविताओं, मेरा मन मा तुमारा सृजन कू,
कुछ यनु ख्याल आई, कोरा कागज फर मैंन कलम घुमाई,
मेरा प्यारा पाठकु अर प्रशंसकुन, मेरु भौत उत्साह बढाई....
गढ़वाली भाषा अर पहाड़ फर कविता, मेरु रचना संसार छ,
मैं कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु", पहाड़ मेरी आस छ,
कालजई कविताओं मेरी, हरेक पर्वतजन का मन मा बसि जावा,
जनु मेरु भाव व्यक्त करयुं छ, ऊँका मन मा पहाड़ प्रेम जगावा,
मेरा मन की आस छ, पहाड़ प्रेम की प्यारी कुतग्याळि लगावा,
मेरु मन बोल्दु छ, देवभूमि उत्तराखंड तैं देखौं अनंत आकाश सी,
समस्त उत्तराखंड तैं देखौं, अपणा आँखौंन जैक बिल्कुल पास सी,
पहाड़ फर मेरी प्यारी कविताओं, मैंन "तुमारा बाना" कलम उठाई ,
प्यारा उत्तराखंडी भै बन्धों का मन मा, पहाड़ प्रेम की आस जगाई.
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Friday, May 27, 2011

"भक्कु लगिगी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सुण हे भुल्ला,पाड़ की याद औणी,
भारी बितणी छ मन मा, हबरी छ सतौणी.....
पहाड़ छोड़ी दूर परदेश, लगदु छ भारी घाम,
झबड़ताळ सी लगदि छ, पीठी मा पड़दु डाम.....
दिन रात दनका दनकी, होईं रंदि छ राड़ धाड़,
ठंडा बथौं पाणी बिना, याद औन्दु प्यारू पहाड़.....
मेरा मुल्क प्यारी जगा छन, चन्द्रबदनी, अन्जनीसैण,
होला भग्यान काफल खाणा, मेरा प्यारा भाई बैण.....
ठण्डु पाणी छोया ढुंग्यौं कू, होला मनखी पेणा,
तिबारी डिंडाळ्यौं मा, फंसोरिक होला सेणा.....
द्योरू होलु बल बदलेणु, बरखा, बथौं अर किड़कताळ,
कथगा प्यारू लगणु होलु, ठण्डु प्यारू हमारू गढ़वाळ.
मेरा दगड़्या भौत होला, कखि दूर दूर परदेश,
होला ऊ भि भभसेणा, मन जौंकु, अबरी होलु गयुं गढ़देश....
"भक्कु लगिगी" भभसेणु छौं, तरसेणु छ पापी पराण,
मन मा बस्युं प्यारू मुल्क, कनुकै वख अबरी जाण......
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २७.५.२०११
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प्रिय मित्र नौटियाल जी, ग्राम बैंसोली, अन्जनीसैण की फरमाइश पर रचित.....

Thursday, May 26, 2011

"हमारा मुल्क"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जख प्यारी डांडी कांठी, छोयों कू ठण्डु पाणी,
मन मा बस्युं सब्यौं का, अर तर्सेंदु छ पराणी.
बांज बुरांस का बण छन, हैंसदा डाळ्यौं मा फूल,
सेरा पुंगड़ा प्यारी घाटी, माधो का मलेथा कूल.
ढुंगा प्यारा पौड़ पाखा, धौळ्यौं कू बगदु पाणी,
खैणा, तिमला, काफळ, हिंसर, अर सब्बि धाणी.
कोदु, झंगोरू, दाळ, गौथ, तोमड़ी, चचेंडी, कंडाळी,
कौंताळ मचौंदा छोरा छारा, मारदा छन फाळी.
बणु मा गोरु बाखरा, जख ग्वैर बजौंदा बाँसुळी,
बेटी ब्वारी गीत लगौंदी, हाथ मा घास की पूळी.
गौं गौं मा मंडाण लगदा, कुल देवतौं तैं मनौंदा,
संकट मा रगछा कनि, ऊँ मन की बात बतौंदा.
अब मोळ माटु होण लगि, हे प्यारा मुल्क हमारा,
विकास की झबड़ताळ सी, पिथेणा ऊ पहाड़ प्यारा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २६.५.२०११
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Wednesday, May 25, 2011

"मलेथा"


कनु भलु लगदु,
वीर भड़ माधो सिंह भण्डारी,
जख छन सैणा सेरा,
लसण प्याज की क्यारी....

आमू का बग्वान छन,
छेंडू, घट्ट अर लम्बी कूल,
बलिदान आपकु वीर भड़ माधो,
क्वी नि सकदु भूल.....

देखि होलु आपका मलेथान,
माधो सिंह जी आपकु रंग रूप,
पूछा त बतौंदु निछ,
आज अफुमा होयुं छ चुप.....

अलकनंदान देखि होला,
माधो सिंह जी अपकु त्याग,
वीर भड़ जना करतब,
धन धन मलेथा तेरा भाग....

रुकमा रै होलि माधो जी,
आपका मन की भौत प्यारी,
पूछदि थै कनु तेरु मलेथा,
हे भड़ माधो भण्डारी.....

आपन बताई रुकमा तैं,
मेरा मलेथा बांदु की लसक,
बैखु कू अंदाज भलु,
मेरा मलेथा बैखु की ठसक....

आपन बताई रुकमा तैं,
मलेथा मा घांड्यौं कू घमणाट,
भैस्यौं का खरक छन,
बाखरौं का झुण्ड अर भिभड़ाट....

निर्पाणि कू सेरू माधो जी,
होंदु नि थौ बल अन्न पाणी,
बेटी नि देन्दा था मलेथा,
जख सब्बि धाणी की गाणी....

मलेथा की कूल बणैक,
मलेथा आज स्वर्ग का सामान,
आप फर आज मलेथा का मनखि,
करदा होला अभिमान....

आज अमर छन आप,
आपकु मलेथा गौं प्यारू,
गढ़कवि "जिज्ञासू" तैं भलु लगदु,
जू छ दुनिया मा न्यारु.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २५.५.२०११
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Tuesday, May 24, 2011

"रैबार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

औन्दु थौ कबरि, अब नि औन्दु,
प्यारा ब्वै बाबु कू, जीवन-संगिनी कू.....

प्यारा दगड़्यौं कू, मुल्क का मनख्यौं कू,
जब औन्दु थौ, क्वी दगड़्या गौं बिटि.....

तब पूछ्दा था, क्या रैबार अयुं छ मैकु?
रैबार यनु होंदु थौ, बेटा हौळ लगाण ऐजै.....

भैंसु अबरी लैंदु छ, टक्क लगिं छ हमारी,
छक्कि छक्किक दूध पीजा, घ्यू की माणी ल्हिजा,
बुबाजी कू रैबार, बेटा! मेरु शरील अब भलु निछ,
धाणि धंधा का बग्त, जरूर घौर ऐजै,
हमारा गौं मा ऐंसु, ह्यूंद देवतौं कू मंडाण लगलु,
उबरि तू घौर ऐजै, ग्राम देवतौं की पूजा छ,
जरूर शामिल ह्वैजै, अपणा हाथुन भेंट चढैजै,
क्या बोन्न अब? मोबाइल कू राज छ,
रैबार कू राज अब नि रै,
कखन औण अब रैबार, ऊ जमानु अब नि रै,
गौं बिटि अब कैन देण "रैबार"?
वा बात अब नि रै, कविमन मा "रैबार",
आज भी बस्युं छ, मन मा "जिज्ञासू" का....

(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २३.५.२०११
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Monday, May 23, 2011

"ढाँगु"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
पौड़ी गढ़वाल का,
ढाँगु उदयपुर की,
नि छौं कन्नु बात....
बात यनि छ,
जब बल्द अर मनखी,
बुढ्या ह्वै जान्दु,
त वैकु बोल्दा छन,
बुढ्या "ढाँगु" ह्वैगि....
उत्तराखंड कू मोती ढाँगु,
जै फर लग्युं गीत,
पहाड़ मा प्रसिद्ध छ,
वैकु मोल नौ रूप्या,
पर वैका सिंग कू मोल,
सौ रूप्या थौ......
शरील कू सदानि,
साथ नि रंदु,
बल्द हो या मनखी,
एक दिन "ढाँगु" ह्वै जान्दु.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहरी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २२.५.२०११
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Friday, May 20, 2011

"लाटी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सच मा थै वा,
क्वी चरक न फ़र्क,
वे जमाना की अनपढ़,
एक दिन वींका बुबाजिन,
वींकी मागण करि दिनि,
वीं तैं कुछ भि पता ना,
एक दिन वींकी बारात आई,
वींकु ओलु थौ गाड़्युं,
बाद मा वीं पता लगि,
जवैं बुढ्या छ, बगत बिति,
तीन नौना अर चार नौनी,
वींका पैदा ह्वैन,
अर बुढ्या स्वर्ग सिधारिगी,
क्या करू अब "लाटी"?
वींन हिम्मत नि हारी,
बाल बच्चा पढै लिखैन,
कुछ समय बाद,
द्वी नौना फौज मा,
एक नौनु सरकारी नौकरी,
"लाटी" का घौर घ्यू का,
दिवा जगण लगिन,
अब वा "लाटी" नि रै,
वींकी जिंदगी मा,
बसगाळ ऐगी.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लाग पर प्रकाशित)
दिनांक: २०.५.२०११
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Thursday, May 19, 2011

"चल दूर चलि जौला"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

हे सौन्जड़्या,
मेरा दगड़्या हे,
बचपन का ऊ,
दिन याद कर,
कांडौ जनु जीवन थौ ऊ,
पर आज सी प्यारू,
अब लगदु छ,
मयाळु मन मेरु,
आज डरदु छ,
चलि जौं वे प्यारा,
मुल्क अपणा,
मन मेरु आज यनु बोन्नु छ,
तू अपणा मन की बात बोल,
या दुनियां छ,
त्वैतै कनुकै बतौं,
झूटी माया कू घोल,
पर "चल दूर चलि जौला",
अपणा प्यारा मुल्क हे.

(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: १७.५.२०११
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"यनु बोल्दा छन"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

मेरा मुल्क खासपट्टी,
टिहरी गढ़वाल मा,
दाना सयाणा भै बन्ध.....

बरखा बरखी डागर,
द्योरू बरखी डागर,
तब त समझा सच छ,
खासपट्टी मा अबरखण,
हळसुंगि बल काकर,
बल "यनु बोल्दा छन".....

छाँछ मागण जाण त,
भांडु क्यौकु लुकौण,
ज्व बात सच छ,
कतै नि छुपौण,
बल "यनु बोल्दा छन".....

गंगा जी का छाला फुन्ड,
थौ जाण लग्युं,
बल भौ सिंह ठेकेदार,
बोन्न लगि,
त्वैन क्या जाणन,
हे गंगा माई,
यख फुन्ड ऐ थौ,
भौ सिंह ठेकेदार,
वैन धोळ्यन धौळी मा,
रुपया कुछ कल्दार
बल "यनु बोल्दा छन".....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १६.५.११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html

"कूड़ी बांजा पड़्यन तेरी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
भारी गाळ माणदा था,
मेरा मुल्क का मनखी,
जू कैन यनु बोल्यालि,
पर आज यनु निछ.......
जौंकी कूड़ी बांजा छन पड़ीं,
हमारा प्यारा मुल्क,
कुमौं अर गढ़वाळ,
समझा आज ऊँकू,
विकास होयुं छ......
विकास की दौड़ मा,
हमारा मुल्क कू,
हरेक मनखी खोयुं छ,
आज आशीर्वाद छ,
जू क्वी यनु बोलु,
"कूड़ी बांजा पड़्यन तेरी"....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लाग पर प्रकाशित)
दिनांक: १८.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
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Monday, May 16, 2011

"झपन्याळि डाळी का छैल"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

बैठि थौ कबरी, सुण हे दगड़्या,
अपणा प्यारा, मुल्क पहाड़,
दोफरी कू घाम थौ, बगदु बथौं थौ,
डाळी थै झपन्याळि, बांज बुरांस की,
बासण लगिं थै, घुघती हिल्वांस,
हैंसण लग्युं थौ, बण मा बुरांस,
तू भी थै बैठ्युं, जरा याद कर,
बात छ हमारा, प्यारा बाळापन की,
वे दिन दगड़्या, बैठ्युं थौ मैं,
अंग्वाळ मारिक, हे तेरा गैल,
कुलदेवी चन्द्रबदनी का डंडा,
"झपन्याळि डाळी का छैल",
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १२.५.२०११

"काफळ खैजा"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

हमारा मुल्क काफळ पक्याँ,
होयां होला रसीला,
होला क्वी भग्यान खाणा,
प्रभु तेरी क्या लीला....

मन पौन्छ्युं छ वे पहाड़,
आँखी छन फटकणि,
काफळ खाण यख कखन,
होईं छन टरकणि.......

होलु क्वी दगड़्या मेरु,
काफळ दाणी ठुंग्याणु,
हबरि हैंसी हैंसी होलु,
बाजूबंद लगाणु.....

देवभूमि कू रैबार अयुं,
हे चुचा तू ऐजा.....
अपणा बाँठा का काफळ,
ह्वै सकु त खैजा.......
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: १२.५.२०११

Sunday, May 15, 2011

"यनु बोल्दा छन"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

मेरा मुल्क खासपट्टी,
टिहरी गढ़वाल मा,
दाना सयाणा भै बन्ध.....

बरखा बरखी डागर,
द्योरू बरखी डागर,
तब त समझा सच छ,
खासपट्टी मा अबरखण,
हळसुंगि बल काकर,
बल "यनु बोल्दा छन".....

छाँछ मागण जाण त,
भांडु क्यौकु लुकौण,
ज्व बात सच छ,
कतै नि छुपौण,
बल "यनु बोल्दा छन".....

गंगा जी का छाला फुन्ड,
थौ जाण लग्युं,
बल भौ सिंह ठेकेदार,
बोन्न लगि,
त्वैन क्या जाणन,
हे गंगा माई,
यख फुन्ड ऐ थौ,
भौ सिंह ठेकेदार,
वैन धोळ्यन धौळी मा,
रुपया कुछ कल्दार
बल "यनु बोल्दा छन".....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १६.५.११

Tuesday, May 10, 2011

"तेरी हाम छ"

क्या बोन्न, मेरा मुल्क,
घर घर मा आज,
नयाँ जमाना मा,
तेरी हाम छ.

त्वै बिना,
सूर्य अस्त का बाद,
मेरा मुल्क का मनखी,
रगबग करदा छन,
जब तू ऊँका पोटगा पेट,
बैठि जांदी छैं,
ऊँका मन मा,
ऊलार पैदा करदी छैं,
ज्वान अर बुढया का,
तब ऊँ तैं यनु लगदु,
सब्बि धाणि मिलिगी आज,
रात सुपन्याळि ह्वैगी,
अहा! कथगा मजा ऐगी,
बोतळ की बेटी,
आज का जमाना मा,
"तेरी हाम छ"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
दिनांक: १०.५.११ सर्वाधिकार सुरक्षित,
प्रकाशित पहाड़ी फोरम और मेरे ब्लॉग पर

Thursday, May 5, 2011

"टिहरी डाम"

जैकी छ हाम,
किलैकि वैका कारण,
बिगळेन मनखी,
दुखेन ऊँका दिल,
यनु भी बोल्दा छन ऊ,
पड़ी हमारी पीठी मा,
मुछाला कू सी डाम.

जी या बात सच छ,
पूछा ऊँ सनै,
क्या ख्वै क्या पाई?
निर्दयी था ऊ,
जौन योजना बणाई,
पहाड़ कू पाणी,
दूर दिल्ली तक पौंछाई,
बिजली बणनी छ,
वा पहाड़ छोड़िक दूर,
ऊँका घौर रोशन कन्नी छ,
जौंकु हक्क कतै निछ,
जौंकु थौ ऊँका घौर,
कखि रोशन त होला,
पर दिल मा दर्दयाळु अंधेरु,
"टिहरी डाम" का कारण.

रचनाकर: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
दिनांक: ५.५.२०११

मलेेथा की कूल