Wednesday, February 25, 2015

मेरा गांव....

जहां तक सड़क है,
छा रहा है सूनापन,
अतीत और आज,
जब तुलना करता हूं,
व्‍यथित होता ,
मेरा जिज्ञासु कविमन...

नहीं दिखते आज,
वो कौंताळ करते बच्‍चे,
घसेरी, पनेरी, बैख,
चौक मा बळ्दु की जोड़ी,
रामदि गौड़ी भैंसी,
लगते थे बहुत अच्‍छे....

आज के स्‍कूली बच्‍चे,
और अतीत के स्‍कूल्‍या,
पीठ पर पाटी लटकाए,
हाथ में कमेड़ा का बोदग्‍या,
लिखते थे लकड़ी की कलम से,
बराखड़ी पाटी पर,
कहते थे गुरु जी,
पाटी पर घोटा लगाकर,
साफ लिखकर लाना,
आज ऐसा नहीं है,
बदल गया जमाना....

भौत रौनक रहती थी,
तब मेरे गांव में,
चप्‍पल जूते नहीं होते थे,
सबके पांव में,
मांगते थे सुलार,
मैं गांव जा रहा हूं,
टल्‍ले लगाए कपड़े,
पहनते थे लोग तब,
उस समय की बात,
सृजन कर बता रहा हूं....


चर्चा होती है आज,
सूने गांव बंजर हैं खेत,
स्‍कूल्‍या लड़के लगाते थे,
अपने खेतों में हल,
आज चले गए है,
उच्‍च शिक्षा की चाह में,
शहरों की तरफ,
सपिरवार सभी,
बैल गांव में आज,
ढ़ूंढ कर भी नहीं मिलते,
सोचो कौन लगाएगा हल,
एक दो जाेड़ी और हळ्या,
लगा रहे हैं पूरे गांव का,
रस्‍म अदायगी रुपी हल.....


आज जमाना अच्‍छा है,
बता रही थी बोडी,
अखोड़ी से ऋषिकेश आती हुई,
बस में जब मैंने पूछा,
बेटा विदेश मेूं,
मैं अब रहती हूं ऋषिकेश में,
रज्‍जा राणी को भी देखा था,
बचपन में मैंने.....

जो भी हो,
गांव जीवित रहने चाहिए,
जहां हमारा मन बसता है,
उत्‍तराखण्‍ड मांगा था हमनें,
अपने गांवों की खुशहाली,
और विकास के लिए,
कब हो सपना पूरा,
इंतजार में है मेरा गांव.....

-कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
की मन और कलम की बात
दिनांक 26.2.2015

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