Friday, October 30, 2015

कवि नजर....


 
घर बिटि ड्यूटी जाण लग्‍युं थौ,

देखि दुकान दुकान मा बांद खड़ी,

जुन्‍याळि रात की जोन सी थै वा,

कवि नजर वीं फर पड़ी......



आंखा चक्‍क बक्‍क ह्वैन मेरा,

ड्यूटी जाण कू ज्‍यु नि करि,

लौटिग्‍यौं तब मैं घर कू अपणा,

कलम ऊठैक रचना करि.....



रुप की वा धनवान थै भारी,

दिन का ऊजाळा मा चमकणि थै,

नाक मा नथुलि बुलाक वींका,

हलहल हलहल हलकणि थै.....



ज्‍वानि का दिन होन्‍दा मेरा,

घर बौड़िक कतै नि औन्‍दु,

सौदा पत्‍ता कन्‍न का बाना,

वीं दगड़ि मैं माया लगौन्‍दु.....



घरवाळि मैंकु पूछण लगिं थै,

आज किलै लौटिक अयां,

बात यनि क्‍या ह्वैगि आज,

क्‍यौकु ड्यूटी फर नि गयां....



मैंन बताई ध्‍यान सी सुण तू,

दिल मा आज ऊजाळु ह्वैगि,

ज्‍युकड़ि का द्वार खुलिग्‍यन मेरा,

पापी मन मेरु भरमैगि......



आज देखि मैंन बांद एक,

दिन का ऊजाळा मा चमकणि थै,

गोरी गलोड़ि देखि वींकी,

नजर मेरी नि हटणि थै.....

 

घरवाळि बोन्‍नि नजर तुमारी,

 मैं फर भी वे दिन पड़ि थै,

शर्म सी लगणि थै मैकु भारी,

दगड़्या मेरी मैं दगड़ि खड़ि थै......
10.10.2015


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