Tuesday, February 22, 2011

"देवभूमि तेरा दर्द"

तिस्वाळे हैं गाँवों के धारे,
नदियाँ हैं तो प्यासे लोग,
कैसे बुझेगी पर्वतजनों की तीस?
देखो कैसा हैं संयोग.

प्राकृतिक संसाधन बहुत हैं,
मनमोहक प्रकृति का सृंगार,
पलायन कर गए पर्वतजन,
जहाँ मिला उन्हें रोजगार.

रंग बिरंगे फूल खिलते हैं,
जंगलों में पक्षी करते करवल,
वीरानी छा रही गावों में,
कम है मनख्यौं की हलचल.

जंगल जो मंगलमय हैं,
हर साल जल जाते हैं,
कितने ही वन्य जीव,
अग्नि में मर जाते हैं.

पुंगड़े हैं बंजर हो रहे,
कौन लगाएगा उन पर हल?
हळ्या अब मिलते नहीं,
बैल भी हो गए अब दुर्लभ.

पशुधन अब पहाड़ का,
लगभग हो रहा है गायब,
छाँछ, नौण भी दुर्लभ,
घर्या घ्यू नहीं मिलता अब.

ढोल दमाऊँ खामोश हैं,
ढोली क्यों उसे बजाए,
हो रहा है त्रिस्कार उसका,
परिजनों को क्या खिलाए.

नदियों को है बाँध दिया,
गायों को है खोल दिया,
देवभूमि की परंपरा नहीं,
हे मानव ऐसा क्यों किया?

हे पर्वतजनों चिंतन करो,
सरकार अपनी राज्य है अपना,
"देवभूमि तेरा दर्द" बढ़ता ही गया,
साकार नहीं सबका सपना.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

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