Wednesday, July 11, 2012

"हे! बौड़िक ऐगि बसगाळ"


कवि:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(दिल्ली प्रवास से...)
हे दिदौं, हे भुलौं,
हे मेरा मुल्क का  मनख्यौं, 
देखा देखा बौड़िक ऐगि,
फिर काळु  बसगाळ,
हमारा प्यारा मुल्क पहाड़,
कुमाऊँ अर गढ़वाळ.....

डांडी काँठ्यौं मा,
हरयाळि फैलिगि,
गाड गदन्यौं मा पाणी,
छोया फूटिग्यन धारू धारू,
सेरौं मा रोपणि लगण लगिन,
कुयेड़ी हेरि हेरि बेटी ब्वारी,
अफुमा खुदेण लगिन,
गाड -गदन्यौं अर,
धौळ्यौं कू सुँस्याट,
ज्यूकड़ि मा पैदा कन्नु धक्ध्याट,
रिम झिम बरखा लगिं,
हाथ मा लाठी पकड़ी बौडा,
छतरी ओढ़ी लग्युं छ,
समधी जी का गौं का बाट....

दिन भर लगिं,
बसगाळ्या बरखा,
छोरा छन बोन्न  लग्यां,
हे बोडा हे बोडी भीतर सरका,
डांडी काँठ्यौं मा,
भागण मा लगिं,
बसगाळ्या कुयेड़ी,
कैकु तैं छ खुद खुद लगणि,
कैका मन मा आस जगणि,
 "हे! बौड़िक ऐगि बसगाळ",
हमारा प्यारा मुल्क पहाड़,
कुमाऊँ अर गढ़वाळ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 11.7.2012)

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