Friday, November 12, 2010

"गाँव की आस"

गाँव की उम्मीदों का खून,
अब शहर में जीते-जीते,
अपने दर्द भरे दिल में,
बेदर्द होकर बह रहा है.

शहर की चिमनियों से,
निकलता काला धुवाँ,
किसी को रोजगार देकर,
उड़ रहा अनंत आकाश को,
जिसमें छुपा होगा दर्द,
पहाड़ से पलायन कर आए,
किसी पर्वतजन का भी.

चंचल मन आज मुझे,
बड़ा बेरूखा हो गया तू'
धिक्कार कर कह रहा है,
लौट जा अब भी,
क्या रखा है यहाँ?
कितने ही आए,
पहाड़ से पलायन करके,
तेरी तरह इस शहर में,
पलायन का दर्द,
दिल में ढ़ोते-ढ़ोते,
स्वर्ग को चले गए,
लेकिन! लौट नहीं पाए,
गाँव है कि आस में,
आज भी इन्तजार में हैं.

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द "या"
महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून...
कवि: विपिन पंवार "निशान" जी द्वारा फेसबुक प्रस्तुत इन पंक्तियों
पर मेरी अनुभूति... "गाँव की आस" कविता के रूप में.....१२.११.२०१०
(यंग उत्तराखंड, मेरे ब्लॉग पोस्ट पर प्रकाशित)

1 comment:

  1. चारो और प्रदुषण ही परदुषण
    फिर भी जी रहे है इस शहर मे
    सवर्ग समान पहाड से पलायन
    हम कर जाते है..
    और रह रहे है ईस प्रदुषण भरे शहर मे
    पर क्या करे,, मजबूरी..

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