Friday, February 3, 2012

"पहाड़"

मैदान से डरता है,
नदियों के द्वारा,
बहुमूल्य गाद भेजकर
मैदान का सृजन,
करता है,
अपने आँचल से,
निकलने वाली नदियों से,
मैदान को सींचता है....

मैदान से जुदा होकर,
पहाड़ उत्तराखण्ड बना,
फिर भी डरता है,
अपना ही मैदानी भाग,
उसका भाग्य,
आज भी निर्धारित करता है....

जैसे पहाड़ को राजधानी,
जरूरी सतत्त विकास,
पलायन पर रोक,
प्राकृतिक संसाधनों का,
समायोजित लाभ,
खेत खलिहान में समृधि,
क्योँ नहीं मिला?
पहाड़ को आज भी.....

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: ३.२.२०१२
www.pahariforum.net

1 comment:

  1. बेहतरीन जयाड़ा जी. यह कविता बहुत पसंद आयी. कविता में ऊर्जा है, आग है. बहुत कुछ कह जाती है.
    भाई आनंद बिल्थरे जी की एक पुरानी कविता याद आ गयी.
    पहाड़-
    अपाहिज की तरह
    हमेशा बैशाखी का मोहताज
    और मैदान
    मक्कारी में सदा
    ऊंचे पायदानों पर
    गाडी पर मोटर पर
    पहाड़ के कन्धों पर !

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