Tuesday, April 17, 2012

"सोचा दौं"

सदानि,
क्या यख रौला?
माया का बस ह्वैक,
यनु भि लगणु छ,
यीं धरती छोड़िक,
कबि नि जौला....
धेल्ला पैंसा मा,
घर बार छोड़िक,
जन्मभूमि सी दूर,
परदेश मा,
डुब्याँ रौला,
धीत भरिक,
मेहनत की खौला...
एक दिन,
यनु भि आलु,
सब्बि धाणि छोड़ी,
"सोचा दौं"
हे चलि जौला....
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
१७.४.२०१२

2 comments:

  1. बहोत सुंदर रचना जिज्ञासु जी।
    कभी जरा मेरा ब्लॉग मा भी ऐ के अपना विचार दिया
    http://garhwalikavita.blogspot.com

    धन्यवाद

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  2. जीवन की हकीकत बयां करती एक सुन्दर प्रस्तुति..... ऐसा दार्शनिक भाव अनुभव से ही आता है.... आभार !
    एक बात जयाड़ा जी, यह कहना चाहूँगा कि मै कोशिश करता हूँ कि कुछ गंभीर लेख लिख सकूं. आपने शायद देखे हों, परन्तु आपकी ओर से कोई प्रतिक्रिया कदाचित ही आयी हो....
    अभी नवीनतम पोस्ट चन्द्र सिंह गढ़वाली पर हैं परन्तु आपने शायद ही पढ़ा हो.... एक बार पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें.

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