Monday, June 4, 2012

"थकते नहीं थे पाँव मेरे"

थकते नहीं थे पाँव मेरे,
जब पीठ पर लादकर,
ले जाता था,
बोझ! हर पर्वतजन की तरह,
चन्द्रबदनी मंदिर की,
पूर्व दिशा में,
कटार चोट  की,
तड़तड़ी ऊकाळ को,
धमाधम नापते हुए,
लगता नहीं था,
अभी दूर जाना है,
बचपन की उमंग कहो,
या जवानी का जज्बा...
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
४.५.२०१२ 
मित्र जय प्रकाश पंवार जी की रचना "पहाड़ दर पहाड़" के
सन्दर्भ  में रचित मेरी रचना  

1 comment:

  1. अब तक की लिखी अन्य रचनाओं की तुलना में यह रचना मील का पत्थर साबित होगी जयाड़ा जी. आपका प्रयास सराहनीय है।
    बारामासा पर आपके लिए नयी पोस्ट डाली है. पढ़कर अपनी राय व्यक्त करना न भूलें।
    वैसे आप अभी तक बारामासा के Follower भी नहीं है शायद.... कुजणी किलै.

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