Friday, November 4, 2016

ऊंचा हिंवाळा कांठा.....



देख्दा होला तुम,
जख डाळा नि जम्दा,
घास पात भी ना,
जम्दु छ त ह्युं,
जू सुखिलु होन्दु,
तोमड़ा का फूल की तरौं....

ह्युं जब गळ्दु छ,
तब जल्म होन्दु,
एक धौळि कू,
अर बग्दि छ,
ह्युंचळा कांठौं बिटि,
गैरी घाट्यौं की तरफ,
जीवनदायिनी बणिक.....

ऊंचा हिंवाळा कांठा,
लग्दा छन जन,
ऊंका मन मा,
आगास लौंफ्यौंण की,
खास आस छ,
अनंत छ आगास,
पर हिंवाळा कांठा,
पौंछि नि सक्दा,
आगास का पास.....

मनखि सीख ली सकदन,
ऊंचा हिंवाळा कांठौं सी,
बड़ु मनखि बण्न का खातिर,
पर मन नि बदल्युं चैंदु,
किलैकि माटु छ मनखि,
अपणौ तैं गौळा लगावा,
प्यार पिरेम बढ़वा,
यख सदानि कैन नि रौण....
दिनांक 4/11/2016

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