द्वारा/रचित/ जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
पिलै देवा मैकु, भलु होलु तुमारु,
बोन्न लग्युं छौं, बात यनि छ,
कपाळि मा आज, मेरा होयुं छ,
कुजाणि किलै, भारी मुंडारू........
क्या बोन्न लठ्याळौं,
मिलि जांदी मैकु, पैला फूल की,
पहाड़ की प्यारी, जैंकु बोल्दा छन,
जौनसार अर हमारा मुल्क की,
कच्ची-कच्ची दारू........
कवि मन मा प्यारू, पहाड़ बस्युं छ,
"द्वी बुंद दारू" का खोज,
कवि "जिज्ञासु" कू मन,
वे पहाड़ गयुं छ,
क्या बोन्न तुमारा बिन भी,
भारी उदास होयुं छ.........
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित ६.९.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Tuesday, September 6, 2011
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