(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जौंकु नौ सुणिक, हे! राम,
मनखि का मन मा,
भारी डौर पैदा ह्वै जान्दि छ,
हो भी किलै ना,
होन्दा ही खतरनाक छन...
कै जमाना रुद्रप्रयाग मा,
निर्भागी मनस्वाख बागन,
कै मनखि खैन,
अजौं भी खांदा छन,
रीक्क मन्ख्यौं बगदौन्दा छन...
पर आज का जमाना मा,
मनखि "बाग़ अर रीक्क",
बण्याँ छन, होयां छन,
मन्ख्यौं का खातिर........
सोचा दौं,
क्या ईलाज छ युंकू?
मनखि ही खोजि सकदु,
जन हमारा उत्तराखंड मा,
भ्रष्ट्राचार का खातिर,
लोकायुक्त बिल पास करिक,
ईलाज कू प्रयास होणु छ.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १५.११.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Tuesday, November 15, 2011
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