(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ९.१०.११)
जै फर गर्व छ, हरेक उत्तराखंडी तैं,
हो भि किलै न, लड़ी भिड़िक लिनि,
उत्तराखण्ड राज्य, उत्तराखण्ड वासियौंन,
प्यारा प्रवासियौंन, होणी खाणी का खातिर,
पराणु सी प्यारू, दुनिया मा न्यारू,
हे! उत्तराखण्ड राज्य हमारू.....
संकल्प हो सब्यौं कू,
बोली-भाषा, संस्कृति कू सृंगार,
मन सी सदानि, उत्तराखण्ड सी प्यार,
भला काम करिक समाज कू मान,
विरासत फर होयुं चैन्दु अभिमान,
जौन दिनि बलिदान अपणु,
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण का खातिर,
मन सी करा ऊँकू सम्मान,
देवभूमि छ हमारी जन्मभूमि,
जख विराजमान छन बद्रीविशाल,
कथगा प्यारू रंगीलो कुमाऊँ,
अर छबीलो प्यारू गढ़वाल.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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उत्तराखण्ड की गाथा को बयां करती एक हृदयस्पर्शी रचना... बहुत बहुत आभार.
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