(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
झळ-झळ पित्र कूड़ौं बिटि, गौं का न्यौड़ु,
जख भि छन,
ऊजड़दा कूड़ा, बजेंदा पुंगड़ा,
निराश घर गौं, सगोड़ा भि,
हे! हमारा तुमारा,
भौत उदास होयुं छ, बल ऊँकू मयाळु मन,
आज हाथ हमारा तुमारा,
कुछ भि निछ,
सोचि सकदौं, पर कुछ नि करि सकदौं,
च्हैक भि,
किलैकि, आज वक्त की मार छ,
पर क्या होलु, हे बद्रीविशाल जी,
हमारा उत्तराखंड कू यनु विकास हो,
हमारा हाथ सी,
भौ भल्यारी, होंणी खाणी, सब्बि धाणि,
पहाड़ कू मिजाज भलु रौ,
हम भि ख्याल रखौं, अर्थ हो अनर्थ ना,
यनु माणिक, हे! "पित्र हमारा देखणा छन".
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २२.११.२०११)
E-Mail: j_jayara@yahoo.com
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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