(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २४.११.११)
सुणा तुम बतौणु छौं,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....
बिना बोल्यां जख बुरांश,
डाळ्यौं मा घुघती हिल्वांस,
गान्दा गीत रूमि झूमि,
वीं उत्तराखंड की धरती मा,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....
अलकनन्दा भागीरथी का,
किनारा कथगा छन प्यारा,
घट्ट घुम्दा गाड मा,
वे प्यारा मुल्क हमारा,
वीं उत्तराखंड की धरती मा,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....
फ्यौंलि,पय्याँ, आरू, घिंगारू,
जख ऊँचि धार बिटि दिखेंदु
उत्तराखंड हिमालय प्यारू,
पुंगड़ा, पाखा, बण बूट,
रीत रसाण, रौ रिवाज,
पौणा तैं पिठैं लगौंदा,
देवतौं कू मुल्क देवभूमि,
जख देवतौं का धाम छन,
वीं उत्तराखंड की धरती मा,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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