Tuesday, September 11, 2012

"पंछी छौं पहाड़ कू"

लखि बखि बण बिटि,
भारी दूर उड़िक,
जन पोथ्लु उड़ान्दु,
जै मुल्क पौंछिगि,
जन भी हो फेर,
वखि कू ह्वै जान्दु.....
 
पहाड़ कू मनखि भी,
वे पंछी की तरौं,
रोजगार का खातिर,
दूर चलि जान्दु,
जै सैर मा रंदु फेर,
सुखि दुखि जन भी हो,
परदेसी ह्वै जान्दु...
 
फेर भी वैका मन मा,
कवि "जिज्ञासु" की तरौं,
"पंछी छौं पहाड़ कू"
यनु भाव औन्दु,
प्यारा पहाड़ की याद,
प्रवास की पीड़ा,
सदानि झेळ्दु झेळ्दु,
मन अपणु बुथ्यौंदु.....
कवि की कल्पना: 
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,
११.९.२०१२  

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