Monday, September 3, 2012

"यीं दुनियां कू सच"

लोभी होंदु छ मनखि,
लोभ का कारण,
भ्रम मा पड़िक,
डोळ्दु रंदु छ,
मैं कथगा खौं,
मेरु कथगा हो,
दुनियां मा सबसि ज्यादा.... 

अंत समय तक,
लग्युं रंदु वैकु मन,
जमीन जैजाद फर,
पैंसा टक्का फर,
लंगी संग्यौं फर,
जौँ सनै अपणु माण्दु..

जै दिन मनखि कू,
ज्यू पराण छुटि जान्दु,
तब लंगी संग्यौं कू,
ज्यु पराण भी,
लालच मा ऐ जान्दु,
अब त यु चलिगि,
काया छोड़िक,
तब देख्दा छन,
वैकु किस्सा टटोळिक,
कखि पैंसा टक्का,
त निछन रख्यां,
बदन मा क्वी,
सोना चाँदी की चीज....

मनखि का दगड़ा,
कुछ नि जान्दु,
जांदी छ भलाई बुराई,
क्या आपतैं,
यीं दुनियां कू सच,
समझ मा नि आई?
-जगमोहन सिंह जयाड़ा(जिज्ञासु)
सर्वाधिकार सुरक्षित
३.९.२०१२  
Bhishma Kukreti जयारा जी नराज नि हुंयाँ
आपन गढ़वाल प्रकृति पर भौत लेखी आल
अब समौ आई गे कि आप भौं विषयूँ पर बि कविता रचो
इन लगणु च आपकी कविता अब कखिम थमी सी गेन

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