Friday, September 21, 2012

"बचपन"



बसंत जैसा होता है,
हर इंसान की जिंदगी में,
जहाँ स्वछंद होता है इंसान,
कोई भेद भाव नहीं मन में,
चिंताओं का नहीं जहाँ स्थान...

माता पिता की गोद में,
खाना-पीना खूब हँसना,
फिर विद्यालय जाना,
अक्षर ज्ञान में मन लगाना,
रात्रि में दादा दादी जी से,
कथा कहानी सुनते हुए,
बेसुध हो सो जाना.....

माता पिता जी के संग,
कुदाली लेकर खेतों में जाना,
गाँव के जंगल में,
बेडु तिम्ला के पेड़ पर चढ़,
चाव से फल खाना,
हिमालय को निहारना,
साथियों के संग,
शरारत करने लग जाना,
खेल में इतना डूब जाना,
अरे! कहाँ था दिन भर,
फिर बहाना बनाना....

माता पिता की डाँट फटकार,
हद कर दी ज्यादा तो,
पहाड़ की कँडाली की मार,
खूब खा लेना दोस्तों के संग,
चुराकर नारंगी, काखड़ी, अखरोट,
देख लिया किसी ने तो,
भागते हुए लग जाती चोट...

संस्कार सीखना,
कौथिग देखने जाना ,
कभी जाना देव स्थान,
मन में अनुभूति होना,
यहाँ विराज रहे भगवान,
कौतुहल से निहारना,
जहाँ लग रहा मँडाण,
अवतरित हो रहे देवता,
ग्रामवासियों पर,
क्या हो रहा है,
जिससे बिलकुल अज्ञान...

जब आती थी ऋतु बसंत,
खिलते थे फूल पहाड़ पर,
फ्योंली और बुरांश के,
जिन्हें निहारते निहारते,
उनमें खो जाना,
आज अहसास होता है,
बसंत जैसा ही होता है,
पहाड़ पर बीता बचपन,
सच ही कहते हैं,
मासूम होता है "बचपन",
जो फिर लौटकर नहीं आता....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,

"शब्द दूत" साप्ताहिक समाचार पत्र द्वारा बचपन पर आमन्त्रित कविता(Published)
21.9.2012
 

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