Friday, September 13, 2013

"पतब्‍येड़ु"

पेन्‍दा था गौं का,
दाना सयाणा,
एक स्‍वर्गवासी,
दादा जी जबरि,
गौं का बण फुंड,
गोरु चरौंदा था....

बोल्‍दा था दादा जी,
अरे ल्‍हवा तुंगला का,
बड़ा बड़ा पत्‍ता,
फेर पत्‍तैां तैं मोड़िक,
एक सेण्‍किन जोड़दा,
हातन तमाखु मिलैक,
पतब्‍येड़ु भरदा...

घंघतीर कू गारु मंगैक,
वे फर कबासि लगैक,
झाड़दा था अगेलु,
धरदा था जग्‍दि कबासि,
पतब्‍येड़ा का ऐंच,
फेर मादा सोड़ि,
छोड़दा धुवां गिच्‍चा बिटि...

बोल्‍दा था ग्‍वैर छोरा,
उंड दी दादा तै पतब्‍येड़ा,
एक सोड़ा हम भी मारदौं,
कनु होंदु पतब्‍येड़ा कू,
तुमारा हात कू भर्युं तमाखु.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षति एवं प्रकाशित
13.9.2013, E-Mail: jjayara@yahoo.com
माननीय भीष्‍म कुकरेती जी द्वारा पतब्‍येड़ी पर लिखे लेख से प्रेरित होकर मैंने यह कविता लिखी।

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