Tuesday, November 11, 2014

क्‍यौकु लग्‍यां छैं.....

 
हे लग्‍द बग्‍द,
कुछ त सोचा मन मा,
कैकु तुम भलु भि करा,
ये मनखि जन्‍म मा....
धौंकरा फौंकरी जैका खातिर,
हात कू मैल छ यू पैंसा,
क्‍यौकु पड़़्यां घंघतोळ मा,
दिन मा द्वी घड़ी हैंसा....
माटा कू बण्‍युं छ मनखि,
मन मा केकु घमंड,
दुर्दिन औन्‍दा जब छन,
ह्वै जांदु मनखि झंड.....
कवि "जिज्ञासु" की बात हेजि,
समझ मा क्‍या औणि,
या जिन्‍दगी मनखि तैं,
दिन रात रुवौणि....
क्‍यौकु लग्‍यां छैं,
हे लग्‍द बग्‍द,
मन मा होयुं अभिमान,
जै दिन जैल्‍या,
कफन हि मिललु,
क्‍यौकु जोड़ना छैं,
सौ घड़ी कू सामान.....
-कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
16.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित
पढें और अहसास करें।

No comments:

Post a Comment

मलेेथा की कूल