उत्तराखण्ड राज्य में निवास करने वाले बाद्दी समाज के लोग आदिकाल से गायन एवं
नृत्य करते हैं। लोकगायक बाद्दी जटा धारण
करते हैं और अपने को शिव का वंशज मानते हैं। उत्तराखण्ड राज्य में इनके कई गांव
हैं। टिहरी जनपद में इनका गांव डांगचौंरा
प्रसिद्ध है। गायन और नृत्य में निपुण
होने के अलावा ये लोकगीत रचने में पारंगत होते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इनके रचे गीत
मौखिक रुप से संकलित गाए जाते हैं। इनके
गीत घटनाओं पर आधारित भी होते हैं। सतपुलि, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में संवत 2008 में आई विनाशकारी बाढ़ पर रचित इनका
कालजई गीत आज भी गया जाता है। इनके रचे गीतों में अतीत का सुंदर संकलन होता
है। देवी देवताओं पर आधारित गीत भी ये लोग
गाते हैं। अतीत में आज जैसे मनोरंजन के साधन नहीं होते
थे। ये लोग गांव गांव भ्रमण करते हुए हर
इलाके की खबर का प्रसार करते हुए, गीत और नृत्य के माध्यम से लोगों का मनोरंजन करते
हैं।
अतीत में गांव गांव भ्रमण करते हुए ये लोग लांक और वर्त का प्रदर्शन करते
थे। जहां वर्त खेली जाती थी, वहां का नामकरण वर्ताखुंट हो जाता था। वर्त खेलने के लिए बाबुल घास की एक मोटी एवं
लम्बी रस्सी तैयार की जाती थी। उसे खूंटे
से ढ़लान में बांध दिया जाता था। लोकगायक बाद्दी
उस रस्से पर लकड़ी की काठी पर बैठकर फिसलता हुआ जाता था। यह प्रदर्शन जोखिम भरा भी होता था। सकुशल प्रदर्शन के बाद स्थानीय लोग लोकगायक बाद्दी
को अनाज, कपड़े एवं धन
प्रदान करके मान सम्मान करते थे। वर्तमान में यह परंपरा विलुप्ति की कगार पर
है।
लांक खेलने के लिए बांस का एक
डंडा खड़ा किया जाता था। उसकी धुरी पर
लकड़ी की काठी लगाई जाती है। लोकगायक बाद्दी
उस पर पेट के बल लेटकर घूमता है। ये भी एक जोखिम भरा कार्य होता था। प्रदर्शन के बाद लोग लोकगयक बाद्दी को सम्मान
स्वरुप अनाज, कपड़े एवं धन
देते थे। आज यह परम्परा भी विलुप्त होती जा रही है।
बाद्दी लोकगायक सर्दियों के
मौसम में गांव गांव जाकर गायन और नृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं। लोकगायक बाद्दी सिर पर पगड़ी और दाढ़ी रखते हैं
और ढ़ोलकी बजाते हैं। लोकगायक बाद्दी की
पत्नी को बादिण कहते हैं। बादिण घाघरा और
घुंघरु पहनकर नृत्य करती है और बाद्दी के साथ गीत गायन में जुगलबंदी भी। शादी
विवाह के सुअवसर पर इन्हें बुलाया जाता है।
ये बरात के साथ जाते हुए गायन और नृत्य की प्रस्तुति करते हैं।
आज इस समाज के लोग अपना पारम्परिक गायन एवं
नृत्य का कार्य आगे ले जाने में असमर्थ हो गए हैं। जब से आडियों/विडियों का प्रचलन हुआ, तब
से इनके इस पारम्परिक व्यवसाय में पहले वाली बात नहीं रह गई। इस समाज के कुछ लोग नौकरी पेशा वाले हो गए हैं। इस कारण से अपनी विधा को आगे ले जाने में ये
असमर्थ है। आज गिनती के लोकगायक बाद्दी
अपनी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। उत्तराखण्ड
सरकार के लोक संस्कृति विभाग को आर्थिक मदद करके लोकगायन एवं नृत्य विधा के धनि लोकगायक बाद्दी समाज को
आगे अपनी परम्परा निभाने को प्रोत्साहित करना चाहिए। इनके पास अतीत से लेकर आज तक के लोकगीतों का
पारम्परिक मौखिक संकलन मौजूद है। उत्तराखण्डी
साहित्यकारों ने इन पर लेख लिखकर संग्रह के माध्यम से इनके लोक गीतों का संकलन
किया है। उत्तराखण्ड की लोक भाषाएं इनके गीतों में संकलित है।
समाज भाषा, संस्कृति और विरासत का वाहक होता है। आधुनिकता की दौड़ में हम
अपनी संस्कृति और विरासत का त्याग करते जा रहे हैं। संपूर्ण भारत की लोक संस्कृति अनोखी है। हम विकास करें लेकिन,
भाषा, संस्कृति और विरासत का त्याग न करें। उत्तराखण्ड राज्य
में निवास करने वाले लोकगायक बाद्दी समाज के लोगों की वर्तमान और अतीत की झलक
प्रस्तुत करने का मैंने प्रयास किया है।
कवि और लेखक होने के नाते फर्ज निभाने का भी।
जगमोहन सिंह जयाड़ा “जिज्ञासू”
ग्राम: नौसा बागी, पट्टी: चंद्रवदनी,
पोस्ट औफिस: कुन्डड़ी,
टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखण्ड।
दूरभाष: 9654972366
दिनांक 23/5/2019
दिनांक 23/5/2019
प्रवास: दर्द भरी दिल्ली।
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