Wednesday, April 7, 2021

“बसंत बौड़ि ऐगि”

 


 

ह्युंद अड़ेथि बसंत ऐगि,

मन मा छैगि ऊलार,

डांडी-कांठी मुल मुल हैंसणि,

झलकणु फ्यौंलि कु प्यार।

 

बौळ्या बुरांस बौळ्या बणिक,

डांडौं मा लगौणु बणांग,

दूर बिटि डांडौं द्येखि लगदु,

जन फैलीं संग्ता आग।

 

भम्माण ऊदासी दिन छयां,

गैरी घाट्यौं द्येखि ऐसास होंदु,

यु बौळ्या बसंत किलै हमारा?

मन मा कुतग्याळि लगौन्दु।

 

बुरांस हिंवाळि कांठ्यौं तैं,

मुल मुल हैंसि सनकौणा,

हम बिंग्दौं सान सान मा,

अफुमा छ्वीं छन लगौणा।

 

द्यब्तौं की रोपिं पंय्या की डाळि,

फैलौणी बसंती बयार,

फूलीं संग्ता पाख्यौं मा,

बल जख हरी भरी सार।

 

बाळु बसंत बौड़िक ऐगि,

पिंगळि दिखेणि लयाड़ी सार,

कवि जगमोहन जयाड़ा जिज्ञासू”,

रंगमत ह्वयुं बल हपार।


-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

दर्द भरी दिल्ली/ 05/02/2021

रचना: 1630

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