Friday, August 5, 2011

"गढ़वाळि छैं गढ़वाळि मा"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
गढ़वाळि छैं गढ़वाळि मा छकि छक्किक बोला,
कथगा प्यारी भाषा हमारी मन मा कुछ तोला....

ब्वै बोंनि छ,
हे मसाण क्या कन्नु छैं? केकु कन्नु छैं खारू,
हे मेरा लाटा काला तू , बुढेन्दा कु छैं सारू....
खोपरी फूटि कनि आज, त्वैन यु क्या कर्याली,
सैड्डु गिच्चु सिंगाणन, आज त्वैन भार्याली.....
चूकि जान मेरा त्वैकु, हे ऐन्सु की बग्वाळ,
क्यौकु मान्नि छैं, हे लठ्याळा, सगोड़ा फुन्ड फाळ...

बुबा जी बोंना छन,
सुण हे, कख थै गयुं, आँखा कन्दुड़ खोल,
भतगै द्योलु आज त्वै, नितर सच बोल.....
क्या भटकण लग्युं छैं तू, ओलि पली डिंडाळि,
पीठ मा तेरा अभि लगौन्दौ, झण-झणि कंडाळि...

नौनु बोंनु छ,
क्या बोन्न मैन, हे बुबाजी, मेरा गौंणा बैठ्युं छ कांडू,
गोरु चरौण गयुं थौ ब्याळि, जख चन्द्रबदनी कु डांडू.....
घुण्डौ मा फट्युं छ बुबाजी, मेरु झीलु-झीलु सुलार,
कळकळि नि औन्दि मै फर, तुम करदा निछैं प्यार........
गढ़वाळि छैं गढ़वाळि मा छकि छक्किक बोला,
कथगा प्यारी भाषा हमारी मन मा कुछ तोला....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: ५.८.२०११)
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