(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
एक दिन यनु आलु, जब तू पछ्तैली रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
बाल, बच्चा, बंगला छोड़ी, जेल जैल्यु रे.....
भ्रष्ट्राचार का आँगा फाँगौं, खूब घूम रे,
पाप की कमै करि-करि, कब तक खैल्यु रे,
एक दिन यनु आलु, जब गोळ फर ऐल्यु रे,
दारू, माशु, धोळ-फोळ, तब चितैल्यु रे,
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
बाल, बच्चा, बंगला छोड़ी, जेल जैल्यु रे.....
सदानि कैकि नि चल्दि, यनु भि बगत औन्दु रे,
द्वी हाथुन कपाळ पकड़ि, बुकरा बुकरि रोंदु रे,
भ्रष्ट्राचार की गंगा मा, जू हाथ धोंदु रे,
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
"कब तक सटकैल्यु" रे, जेल जैल्यु रे.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: ३१.७.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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गढवाळि कविता, भै बंधु, मन मेरु भौत खुश होंदु, पुराणा जमाना की याद, मन मा मेरा जब औंदि, मन ही मन मा रोंदु, मुल्क छुटि पहाड़ छुटि, छु...
भ्रष्टाचार पर एक अच्छी कविता. पर जयाडा जी, य कविता आपन कबरि लिखी बते नि सकदु पर अच्क्याल त नेगी जी की " अब कथ्गा खैल्यु" खूब चल्नी छ. बस यांका वास्ता लिख्नु छ. बुरु न मान्या.
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