Monday, August 1, 2011

"कब तक सटकैल्यु"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
एक दिन यनु आलु, जब तू पछ्तैली रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
बाल, बच्चा, बंगला छोड़ी, जेल जैल्यु रे.....

भ्रष्ट्राचार का आँगा फाँगौं, खूब घूम रे,
पाप की कमै करि-करि, कब तक खैल्यु रे,
एक दिन यनु आलु, जब गोळ फर ऐल्यु रे,
दारू, माशु, धोळ-फोळ, तब चितैल्यु रे,
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
बाल, बच्चा, बंगला छोड़ी, जेल जैल्यु रे.....

सदानि कैकि नि चल्दि, यनु भि बगत औन्दु रे,
द्वी हाथुन कपाळ पकड़ि, बुकरा बुकरि रोंदु रे,
भ्रष्ट्राचार की गंगा मा, जू हाथ धोंदु रे,
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
"कब तक सटकैल्यु" रे, जेल जैल्यु रे.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: ३१.७.२०११)
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1 comment:

  1. भ्रष्टाचार पर एक अच्छी कविता. पर जयाडा जी, य कविता आपन कबरि लिखी बते नि सकदु पर अच्क्याल त नेगी जी की " अब कथ्गा खैल्यु" खूब चल्नी छ. बस यांका वास्ता लिख्नु छ. बुरु न मान्या.

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