(द्वारा/रचित/ जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
कदम कदम फर अपणा ही,
आज दुखदाई छन,
देखदु छौं जब मिजाज ऊँका,
खट्टु सी ह्वै जान्दु मन...
द्वी कदम मेरी तरक्की का,
मन मा ऊँका आग,
कैका भाग कू क्वी नि खांदु,
अपणु-अपणु भाग.....
बात सिर्फ हृदय किछ,
जख बस्दु छ भगवान,
बेदर्द किलै होयां अपणा,
जन ढुंगा का समान....
फिर भि दिल मा दर्द छ,
जना भि छन ऊँका मिजाज,
देखि दुनियां मतलबी छ,
पराया ही "अपणा आज"...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित ३०.८.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Tuesday, August 30, 2011
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