पर्वजनों का प्यारा,
जहाँ देवताओं का वास,
पर्वतराज हिमालय जहाँ,
शिव शंकर जी का कैलास....
सीना ताने सदा खड़े,
चूम रहे अनंत आकाश,
सन्देश उनका पर्वतजन को,
कभी न होना निराश.....
वीर भडों की जन्मभूमि,
जहाँ प्रकृति का सृंगार,
झूमते हैं मद मस्त होकर,
बांज, बुरांश और देवदार....
चार धाम प्रसिद्ध हैं,
जहाँ पवित्र हैं पंच प्रयाग,
पंच बद्री-केदार हैं,
हे! पर्वतजन तू जाग.....
गंगा-यमुना का मायका,
पवित्र है जिनका जल,
बहती हैं सागर की ओर,
नीर हैं जिनका निर्मल......
हे! पहाड़ सौंदर्य तेरा,
निहार हर्षित होता कविमन,
अनुभूति कवि "जिज्ञासु" की,
धन्य है तू, हे! पर्वतजन......
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: ९.११.२०११
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड.
निवास: दिल्ली प्रवास
दूरभाष: ०९८६८७९५१८७
मित्र वेदप्रकाश भट्ट जी के अनुरोध पर उनकी सांस्कृतिक पत्रिका के लिए रचित.
E-mail: vedprakash1976@yahoo.co.in
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Wednesday, October 12, 2011
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गढवाळि कविता, भै बंधु, मन मेरु भौत खुश होंदु, पुराणा जमाना की याद, मन मा मेरा जब औंदि, मन ही मन मा रोंदु, मुल्क छुटि पहाड़ छुटि, छु...
पहाड़ प्रकृति पर आपकी यह कविता मन को भा गयी जयाडा जी. आप निरंतर सृजन शील है ख़ुशी की बात है. लेखन समय और समर्पण मांगता है आशा है आप साहित्य सेवा के लिए कर पाएंगे. शेष फिर. आभार !
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