Tuesday, October 18, 2011

"हे निहोण्यां निखाण्यां"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
कथगा ज्वान ह्वैगें तू,
अब कै सनै पछाण्नि भि नि छैं,
बोल दौं कू छौं मैं?
हे बाबा! कथगा लम्बा लटुला छन तेरा,
क्या छैं तू बण्युं?
देशी न पाड़ी,
हे कनि मति मरि तेरी,
कबरी अयैं तू परदेश बिटि घौर?
ब्याळि आया हूँ मैं बौडी,
मेरा पराण भौत खुदे रहा था,
ब्वै बाब की भौत याद आ रही थी,
अर बौडी तेरी भी.....
हट्ट.."हे निहोण्यां निखाण्यां",
क्या हिंदी फूक रहा है मेरा दगड़ा,
मैकु त अपणि बोली भाषा,
भौत प्यारी लग्दि छ.......
चल, मेरी कोदा की रोठी,
अर पळिंगा की भूजि बणैयीं छ,
खैली हे चुचा तू......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १८.१०.११)
www.pahariforum.net

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