(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
कथगा ज्वान ह्वैगें तू,
अब कै सनै पछाण्नि भि नि छैं,
बोल दौं कू छौं मैं?
हे बाबा! कथगा लम्बा लटुला छन तेरा,
क्या छैं तू बण्युं?
देशी न पाड़ी,
हे कनि मति मरि तेरी,
कबरी अयैं तू परदेश बिटि घौर?
ब्याळि आया हूँ मैं बौडी,
मेरा पराण भौत खुदे रहा था,
ब्वै बाब की भौत याद आ रही थी,
अर बौडी तेरी भी.....
हट्ट.."हे निहोण्यां निखाण्यां",
क्या हिंदी फूक रहा है मेरा दगड़ा,
मैकु त अपणि बोली भाषा,
भौत प्यारी लग्दि छ.......
चल, मेरी कोदा की रोठी,
अर पळिंगा की भूजि बणैयीं छ,
खैली हे चुचा तू......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १८.१०.११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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