बोन्न लगिं छ बोडी,
तिबारी मा बैठी,
हे चुचों!
कनि मति मरि तुमारी,
क्यौकु होयुं छ,
रात दिन तुमकू,
"दारू अर खारू",
जरा! सोचा मन मा,
देवतों कू मुल्क छ,
उत्तराखण्ड हमारू.
ब्यो हो या बारात,
पेन्दा छैं तुम,
दिन हो या रात,
करदा छैं हो हल्ला,
मचौंदा छैं उत्पात,
मेरी दानी बात माणा,
भलि निछ या बात,
कैकु भलु,
आज तक नि ह्वै,
"दारू अर खारू" पीक.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १८.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Tuesday, April 19, 2011
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