यथगा खुश किलै छैं?
अफुमा-अफुमा भारी,
आंख्यौं फर भरोंसु,
क्या सच छ, सच मा,
तू बैठीं छैं तिबारी मा,
भलि बाँद की अन्वारी.
कथगा स्वाणी लगणि छ,
तेरी मायाळु मुखड़ी,
"तू आज" यनि लगणि छैं,
जनि हो जुन्याळि जोन,
त्वै तैं हेरी हेरिक धक् धक्,
कनि मेरी ज्युकड़ी.
तेरा रूप की बात,
क्या बतौण, त्वै हेरिक,
बुरांश बिचारू ललसेणु छ,
मन मेरु भी अफुमा-अफुमा,
तेरु मिजाज, रंग अर रूप,
झळ-झळ लुकां ढकाँ देखिक,
क्या बोन्न ललचेणु छ,
किलैकि भारी बांद,
लगणि छैं लठ्याळि "तू आज".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, April 7, 2011
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