(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
यीं दुनियाँ मा अयुं छैं तू, ज्यू भरिक खा,
भटकणु किलै छैं हे, सुदि, ऊँड फुन्ड न जा...
चकड़ीतु की चाल देख, देश मुल्क का हाल देख,
मनखि बाघ बण्यां छन, जौंसि, लगणि छ डौर,
डरि डरिक कतै नि रणु, मनखि छैं तू ,
अफु पछाण, "खैलि! हे लठ्याळा",
यीं दुनियाँ मा अयुं छैं तू, ज्यू भरिक खा,
भटकणु किलै छैं हे, सुदि, ऊँड फुन्ड न जा...
गितांग का गीत सुणि, त्वैन मन मा कुछ नि गुणि,
खूब खा मैं बोन्नु छौं, भोळ मिलु या न मिलु,
रैलु रैठु घल्च पल्च, तू खूब सपोड़,
मैं नि पुछणु "कथगा खैल्यु",
मौका अबरि तेरा हाथ, तू कतै न छोड़,
"खैलि! हे लठ्याळा",
यीं दुनियाँ मा अयुं छैं तू, ज्यू भरिक खा,
भटकणु किलै छैं हे, सुदि, ऊँड फुन्ड न जा...
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २८.७.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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