(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ८.६.२०११)
हेरदा छौं जब हम, अपणा प्यारा गौं मुल्क मा,
मन मा ख्याल औन्दु छ, कबरि बणै होलु कैन,
बड़ा अरमान सी, तब बैठि होलु छज्जा, देळि मा,
हेरि होलु ऊँड फुन्ड, प्यारा डांडा काँठौं जथैं प्यार सी,
पर क्या कन्न! आज ऊ मनखी, होला कखि स्वर्ग मा,
माटा कू शरीर छोड़िक, दूसरू धारण करिक,
पर ऊंकू बणवैंयु घौर, आज टूटिक "खंड्वार" होयुं छ,
जमिं छ कण्डाळि, बांजा चौक मा रिटणि छ बिराळि,
आंसू भि आँखौं मा ऐ जाँदा छन, "खंड्वार"हेरि हेरि.
कबरि कखि तस्वीर मा, हेरदा होला आप चांदपुरगढ़ी,
"खंड्वार" होयां देवभूमि उत्तराखंड मा, देवतौं का भव्य मंदिर,
बावन गढ़ु का अवशेष, "खंड्वार" होयिं तिबारि अर डिंडाळि,
अहसास होंदु छ मन मा, बणनु बिगड़नु यीं धरती मा,
"खंड्वार" बणिक मिटि जाणु, बल कालजई सच छ,
पर "खंड्वार" भलु नि लगदु, कवि "जिज्ञासु" तैं सच मा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, दूरभास: 09868795187)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Wednesday, June 8, 2011
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