(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.६.२०११)
सच मा, क्वी नि सोच्दु,
मनख्यौं का अत्याचार सी,
गंगा, हिमालय, बसुन्धरा,
जल, जंगल त्रस्त छन,
अजौं भि सोचा? कुछ नि बिगड़ी.....
पहाड़, हिमालय आज कूड़ा घर बणिगी,
कब्रगाह भि बणिगी, जब बिटि मानव दखल बढिगी,
वृक्ष विहीन प्यारू पहाड़, धरती कू ताप बढिगी,
प्रकृति कू रौद्र रूप, बस्गाळ-२०१० मा देखि होलु आपन,
देवभूमि उत्तराखंड की धरती मा, उत्पात करिक चलिगी,
संकल्प लेवा धरती का सृंगार की, क्या बोन्न?
"धरती आज बिमार छ", हे मनखी तेरा कारण.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित )
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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