(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २२.६.२०११)
खुद सी लगिं छ, मन वे मुल्क पौन्छ्युं छ,
जख बुरांश बिचारू, अपणु गौं हमारू,
द्वी टपराणा होला, हेन्ना होला मन्ख्यौं,
कख गै होला, हमतैं खोजणा होला,
कसक ऊठणि छ मन मा, हे जोग भाग,
कना दूर ह्वैग्याँ, अपणु गौं मुल्क छोड़ी,
बचपन मा रिश्ता थौ, आज दूर छौं,
ज्युकड़ी मा ढुंगा धरि, अर मुक्क मोड़ी,
कुजाणि क्यौकु? सैद पापी पैंसा का खातिर,
क्या बोन्न, खुद सी लगिं छ,
"मयाळु मन मा", हे दगड़्यौं,
न हैंसदु, न खेल्दु, मन मरिगी,
कवि "जिज्ञासु" की अनुभूति छ,
क्या सच छ...सोचा दौं मन मा?
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Wednesday, June 22, 2011
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