(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सब्बि मन्ख्यौं कू, यीं धरती मा,
सुख, दुःख साथ छन, सुर, लय, ताल भी,
कबरी जीवन जंजाळ, कबरी भारी सुन्दर,
क्वी सुख मा, क्वी दुख मा,
जीन्दू छ जीवन, कै भी हाल मा....
मन हो चंचल, फूल मिल्वन या कांडा,
ईश्वर कू नौं सदानि लेवा,
ज्ञान की गंगा मा रमिक, सब कुछ भूलिक,
सुख शांति कू प्रसार, कैकु मन न दुखावा,
धरती मा सब सुख छन, दुख का दगड़ा,
प्रकृति कू सृंगार,पंछी पोथ्लों कू प्यार,
मन्ख्यौं की मनख्वात,
क्या-क्या निछ? सोचा मन मा,
"जीवन गीत छ" सच मा, अहसास करा...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.६.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Monday, June 13, 2011
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