(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
प्यारू होन्दु छ सब्यौं तैं, यनु बोल्दा छन,
सब्बि डरदा छन बल, सच मा सदानि मन्न सी,
फिर भी मरदा छन, काल का हाथुन मौत बेमौत,
झुर्दु छ, डरदु छ, रगबग करदु छ, कौ-बौ भी करदु,
इच्छी सी पीड़ा न लगु, देह मा कखि, सोचदु रंदु,
धरती कू हर जीव, मनखि त सबसि ज्यादा,
जैकु "पराण" भौत प्यारू होंदु छ........
यीं धरती सनै सच समझिक, जन सदानि रण हो यख,
जू सच निछ, कै भी मायना मा, मनखि का खातिर,
ये मायारुपी संसार मा, फेर भी "पराण" प्यारू होन्दु छ.
जू कबरी भी उड़ी जान्दु छ बिन बतैयां, पोथला की तरौं.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १६.६.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, June 16, 2011
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