(कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १९.६.२०११)
बोल्दा छन लोग, जब आफत की घड़ी औन्दि,
या जिंदगी कैकु, बुरा बगत खूब रुऔन्दि,
वनु क्वी कैकु नि होंदु, या दुनिया की रीत छ,
पर फिर भी इंसान की, यनि आस अर प्रीत छ,
इंसान धरदु छ बल, यनु अपणा मन मा सारू,
यीं धरती मा, हे भगवान! जू क्वी होंदु हमारू,
हर इंसान की या हि, अपणा मन की आस छ,
निभ्वन नाता रिश्ता, यथार्थ बिंगणु बल ख़ास छ,
अहसास करदा होला आप, "क्वी होंदु मेरु",
कवि "जिज्ञासु" की कल्पना, हे प्रभु सारु तेरु.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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