Monday, April 11, 2016

गुळ्न....




पुराणा जमाना मा,
हमारा पाड़ का मनखि,
जब रात होंदि थै,
द्वार फर गुळ्न लगैक,
सेन्दा था फंसोरिक,
चोर क्या,
बाग भी भिचोळिक
खोलि नि सक्दु थौ,
पट्ट ढक्यां द्वार।

सेंदि बग्त दादी जी,
सुणौन्दि थै कथा,
भूत पिचासु की,
लग्दि थै भारी डौर,
तब मन मा,
ख्याल औन्दु थौ,
द्वार फर त,
मोटी गु्ळ्न छ,
लगैयीं दादी जी की...

कबरि भैर,
भिभड़ाट होन्दु त,
गुळ्न हात मा धरिक,
भैर औन्दा था,
दाना सयाणा,
बाग घुराणु हो त,
तब गुळ्न बजौन्दा,
आवाज लगौन्दा,
इलै कि बाग,
दूर भगि जौ....

पैलवान मनखि,
गुळ्न हात मा धरिक,
जांदा था कौथिग,
किलैकि पैलि,
थौळ कौथिग मा,
मारपीट कू,
घत्त ऐ जान्दु थौ,
तब गुळ्न काम,
ऐ जान्दि थै,
जान बचौण अर,
मारपीट का खातिर....


दिनांक 2.2.2016

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