Tuesday, November 13, 2012

"हमारी भैंसी"

 
जैंकी आत्मा,
आज भी भटकदि छ,
हमारा खंडवार होयां,
कूड़ा का ओर पोर,
कुजाणि क्यौकु,
यनु लग्दु,
वीं सनै आज भी,
लगाव छ जन्मभूमि सी...
वीं बिचारि का प्रताप,
हम्न दूध पिनि घ्यू खाई,
घ्यू की माणी बेचिक,
बुबाजिन हम पढाई,
जब वा बुढया ह्वै,
बुबाजिन बेची दिनि,
वांका बाद वींकू,
क्या हाल ह्वै?
पता तब लगि,
तुमारी भैंसी की आत्मा,
बल भटकदि छ,
तुमारा कूड़ा का ओर पोर,
गौं वाळौंन बताई....
हम दूर छौं आज,
"हमारी भैंसी" की कृपा ह्वै,
पढ़ी लिखिक हमारू,
यथगा विकास ह्वै,
हम घौर जुग्ता नि रयौं,
खाण कमौण का खातिर,
सदानि का खातिर,
पलायन करिक,
पाड़ सी दूर अयौं......
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित १४.११.२०१२

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