Tuesday, April 16, 2013

"पानी बनो"


शर्म से नहीं,
सुन्दर कर्म से,
पलायन कर चुके,
पर्वतजन से एक प्रश्न?
देखो, पानी पहाड़ से,
अपनी यात्रा शुरू करता है,
आपकी तरह,
और नदियों में बहता हुआ,
आस्तिकों के,
तन मन का मैल,
धोता हुआ,
और अंत में,
मिल जाता है,
अथाह सागर से,
फिर लौटता है,
बादल बनकर,
बरसता है पहाड़ पर....


पर्वतजन शहर से लौटकर,
पहाड़ को आते जाते,
जन्मभूमि का सृंगार कर,
चार चाँद लगाते,
पानी की तरह पहाड़ से,
हमें भी प्यार है,
अहसास कराते......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित, ब्लॉग पर प्रकाशित,
17.4.2013







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