Thursday, April 4, 2013

"यादें बचपन की"


मन लगाकर पढता था,
पहाड़ की पठाळी से,
ढके हुए पारंपरिक घर की,
खूंटेलि में बैठकर,
जोनि के उजाले में,
तब पहाड़ में,
मिट्टी के तेल का दिया,
जलाते थे लोग,
बदचलन बिजली तब,
गाँव तक नहीं पंहुंची थी....


पिता जी पास ही बैठ,
हुक्का गुड़ गुड़ाते थे,
और छ्वीं लगाते थे,
रणु चाचा के साथ,
जब तमाखु ख़त्म हो जाता,
कहते थे पिता जी,
एक चिल्म और भर दे बेटा,
पढाई की तल्लीनता त्याग,
भरता था चिल्म,
रखता था अंगारे उस पर,
माँ कहती थी,
सारे अंगारे ले गया,
रोटी कैसे सेकूंगी.....

सामने के गाँव में,
एक दिन बाग आया,
जहाँ जोर जोर से,
भट्या रहे थे लोग,
बकरी ले गया है बाग़,
गाड की तरफ,
तब मैंने बाग़ को सामने,
आँखों से देखा नहीं था...

एक दिन गाँव के,
लोगों के साथ,
गया था लकड़ी के लिए,
हयुन्द के दिन थे,
अचानक पड़ने लगी बर्फ,
ठण्ड के मारे बुरा हाल,
गाँव की एक चाची,
सुझाव दे रही थी,
ठेणी से बचने के लिए,
पाँव में पेसाब करो....

भूतों की कहानी,
सुनता था सोते बग्त,
दादी जी से,
डर भी लगता था,
गाँव के एक बूढ़े ने,
रात में अपनी भैंस समझकर,
पकड़ ली थी पूँछ,
एक दैंत की,
जो घूमता था गाँव के,
चारों ओर और चला जाता,
गाँव के जंगल में.....


गाँव में बीता बचपन,
याद दिलाता है अतीत की,
शहर में कौन सोचता है,
"यादें बचपन की",
उभरती हैं मन में आज भी,
ये कवि "जिज्ञासु" की आदत समझो,
या एक प्रवासी पहाड़ी का मन....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षति
लोकरंग, दस्तक, पहाड़ी फोरम, मेरा पहाड़ फोरम, उत्तराखंडी लेखन प्रतिभा,
जयाड़ा बंधु एवं ब्लॉग पर प्रकशित
4.4.13

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