(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ४.७.२०११)
चन्द्रबदनी का डांडा, लखि बखि बण का बीच,
जख बिटि दिखेणु छ, प्यारू खासपट्टी हपार,
हिन्ड़ोलाखाळ, जामणिखाळ अर रौड़धार,
प्यारू अंजनीसैण, लामरीधार, जाखणीधार....
कखि दूर हैंसणा छन, प्यारा हिंवाळा कांठा,
पैर्यां छन जौंका मुंड मा, ह्यूं का सफ़ेद ठांटा,
कुलदेवी चन्द्रबदनी मंदिर, लगणु छ कथगा प्यारू,
क्या बोन्न हे दगड़्यौं, जख प्यारू मुल्क हमारू,
ब्वारी अलकनन्दा, सासू भागीरथी, संगम देवप्रयाग,
भेंटेणी छन द्वी जख, देखा बल कना छन बड़ा भाग,
कल्पना कवि "जिज्ञासु" की, करा आप भी अहसास,
पोथलु सी उड़ी जावा, पौंछा कुलदेवी चन्द्रबदनी का पास,
"यकुलि-यकुलि" बैठिक, वे प्यारा मुल्क सी दूर,
ज्यू कनु छ आज मेरु, उड़िक चलि जौं खासपट्टी फुर्र..
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित )
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Monday, July 4, 2011
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