(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु)
बोडि देळि मा बैठिक, धौण ढगडेक देखण लगिं थै,
हाथ मा धरिक, अपणु पराणु सी प्यारू, मोबाईल फोन,
ब्याखनि की बगत थै, धार ऐंच हैंसण लगिं थै, बल जोन,
आज क्या ह्वै होलु? नि आई मेरा बेटा धन सिंह कू फोन.
अचाणचक्क! कखि बिटि आई, धन सिंह कू दगड़्या मकानु,
बोन्न लगि, हे बोडि! क्या छैं देखणि, हाथ मा पकड़िक आज फोन,
बोडि बोन्न लगि, हे बेटा! आज ये निर्भागि फर सास निछ बाच,
बेटा धन सिंह कू फोन औण थौ, लग्युं छौं मैं कबरी बिटि मन मा सास,
मकानुन बोलि, क्या बोन्न हे बोडि, तेरु त छ यु फोन, बोडाफोन,
बोडिन फट्ट सी बोलि! हे लाटा, मेरा काला, यु निछ तेरा बोडा कू फोन,
ऊ बिचारा त, आज स्वर्ग मा छन, हमारा पित्र देवता बणिक,
हे छोरा! यु त मेरु छ, या यनु बोल "बोडि कू फोन".
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १.७.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, July 1, 2011
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