(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हमारा प्यारा कुमाऊँ अर गढ़वाळ,
जौन ढक्याँ होन्दा छन, हमारा प्यारा घौर,
तब्बित, भौत प्यारा लगदा छन,
जख होंदु छ छोरों कू किब्लाट,
पहाड़ की वास्तुकला का अनुरूप बण्यां,
तिबारी, डिंडाळि, नीमदरी, बंद मकान,
"पहाड़ की पठाळ" सी ढक्याँ, हमारा मुल्क की शान.....
लेंटरदार मकान की चाहत मा, नयाँ जमाना कू घौर बणैक,
हे पर्वतजन, "पहाड़ की पठाळ" कू, कतै न करा त्रिस्कार,
जौंकी छत्रछाया मा, बिति बचपन अर मिलि प्यार,
लगावा "पहाड़ की पठाळ", नयाँ जमाना का मकान फर,
फेर हेर्यन दूर बिटि, अपणु सुपिनों कू प्यारू घौर,
जगा देवा दिल मा अपणा, "पहाड़ की पठाळ" सी,
रखा जुग-जुग तक प्यार, होलु संस्कृति कू सृंगार,
कायम रलि पहाड़ की, दुर्लभ पुरातन वास्तुकला,
परम्परा छ हमारी, देखि होलु आपन पहाड़ मा कखि,
"पहाड़ की पठाळ" सी ढक्याँ घौर मा, खोळि फर गणेश.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: १८.७.२०११)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Monday, July 18, 2011
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