(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.७.२०११)
यनु लगण लग्युं छ, जनु यीं जिंदगी मा भी,
जब मिलि ख़ुशी मन की, अहसास होंणु छ...
पर चला बात करदु, प्यारा पहाड़ फर बसगाळ की,
हमारा तुमारा वे प्यारा, कुमाऊँ अर गढ़वाळ की....
कड़ाक किड़की द्योरू जब, घनघोर कुयेड़ी छैगी,
कवि "जिज्ञासु" तैं कल्पना मा, प्यारू पहाड़ याद ऐगी..
बरखा लगि कूड़ी की पठाळ, जख बिटि पणद्यारि लगणि,
होलि फसल पात ऐन्सु खूब, मन मा एक आस सी जगणि..
धौळी, गाड, गदना अर धारा, प्यारा छौड़ौं कू छछड़ाट,
बैठ्युं बोडा तिबारी मा, होण लग्युं वैका ह्वक्का कू गुगड़ाट..
दूर कखि सारी मा ढोल बजणा, बल हर्षु काका की गुड्वार्त,
हबरि खूब झूमणा गुड्वार्ति, औजि लगौण लग्युं छ पंड्वार्त..
चौक मा चचेंडीं, काखड़ी, मुंगरी, सारी मा मार्सू होयुं लाल,
कोदू , झंगोरू, सेरों में साट्टी, हे! लग्युं छ बल बसगाळ......
"हे! बसगाळ बौड़िक ऎगि", मन भी कथगा खुश ह्वैगी,
दर्द भरी दिल्ली मा यनु निछ,वे पहाड़ बसगाळ छैगी...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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