(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १५.७.२०११)
आज भी याद औन्दा छन, जू प्यारा मुल्क पहाड़ मा बित्यन,
याद जब जब करदा छौं, व्यथित ह्वै जान्दु भारी मायाळु मन.
सोचा स्कूल मा पढ़ि होला, अर लिखि होलु पाटी फर माटा मा,
खति होलु ऊ प्यारू बचपन, बल स्कूल बिटि गौं तक का बाटा मा.
खाई होला खैणा, तिम्ला, काफळ, प्यारा मुल्क की प्यारी किनगोड़,
लम्डदु- लम्डदु खूब भागी होला, गौं का बाटा फुन्ड लगै होलि खूब होड़.
थौळ जाण कू ऊलार अर रगर्याट, पैरि होलु झीलु पट्टा वाळु लम्बू सुलार,
गै होला कौथगेरू का दगड़ा, हिटि होला प्यारा पहाड़ की ऊकाळ-ऊद्यार.
करि होलु प्यारा दगड़्यौं कू दगड़ु, पढ़ी लिखि होला अपणा प्यारा स्कूल,
बिगळेग्यन आज सब्बि कख होला, मायाजाळ मा अल्झिक गयौं आज भूल.
देखि थौ जब ऊकाळ हिटिक गै था, प्यारी ब्वै का दगड़ा चन्द्रबदनी मंदिर,
हेरि थौ उत्तराखण्ड हिमालय पैलि बार, दूर वथैं भी जख छ सुरकंडा मंदिर.
पहाड़ फर बचपन बिति, नौकर्याळ, फौजी, हळ्या, दाना सयाणौ की बात,
सुणदा था टक्क लगैक ध्यान सी, कंदुड़ फर धरिक अपणा द्वी प्यारा हाथ.
कवि "जिज्ञासु" की कल्पना मा, "ऊ प्यारा दिन" आज भी बस्याँ छन,
कुतग्याळि सी लगदी छन आज, जब-जब याद करदु छ मेरु कविमन
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, July 15, 2011
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