जैकु लोग भलु नि बोल्दा,
किलै होलि पिनी?
यनु भी नि सोचदा....
आज दुनिया पेणी छ,
लुकाँ-ढकाँ अर देखाँ,
ब्यो बारात मा,
दिन हो या रात मा,
कै भी शुभ काम मा,
फेर निचंत करिक सेणी छ....
दुख मा दारू, सुख मा दारू,
अनुसरण कन्नु छ,
सभ्य समाज हमारू,
जबकि पैलि लोग,
कतै नि पेंदा था दारू,
तब विकसित नि थौ,
उत्तराखंडी समाज हमारू.....
क्या बोन्न तब,
आज का युग मा,
दारू हिछ सारू,
"दरोळु" त बोल्दु छ,
हौर ल्हवा रे दारू......
(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
6.1.2012
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, January 6, 2012
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