जो निरंतर बहती है,
अपने पथ की ओर,
सागर की तलाश में,
उसके तट पर बसे,
इंसानों के आवास,
शहर और गाँव,
जो पाते हैं नदी से,
निर्मल जल,
इंसान करते हैं उसको,
प्रदूषित, न जाने क्योँ?
नदी बिना प्रतिकार किये,
बहती रहती है निरंतर,
क्यौंकि उसे बहते रहना है.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
11.1.2012
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Wednesday, January 11, 2012
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गढवाळि कविता, भै बंधु, मन मेरु भौत खुश होंदु, पुराणा जमाना की याद, मन मा मेरा जब औंदि, मन ही मन मा रोंदु, मुल्क छुटि पहाड़ छुटि, छु...
नदी को स्वच्छ रखने के प्रति आपकी सुन्दर कविता .. मेरे प्रिय कवी भेजी ..
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