दूर भागणा छन,
प्यारा पर्वतजन,
पहाड़ सी, कुजाणि किलै?
दुःख दुयौं का मन मा छ,
पहाड़ का भी,
अर पर्वतजन का भी,
आपसी रिश्ता का कारण....
मनखी कू मन बदलि सकदु,
पहाड़ कू कतै ना,
दुःख देणी छन जैकु,
विकास की परियोजना,
जौमा विनाश भी लुक्युं छ,
जू पर्वतजन का खातिर भी,
भलि निछन बल,
नितर किलै भागदा,
पर्वतजन, पहाड़ सी दूर,
क्या देणी छन,
यी परियोजना पर्वतजन तैं,
सिर्फ विस्थापन अर पलायन,
रोजगार कथगा?
पर्वतजन अर पहाड़,
दुयौं कू सतत विकास हो,
अतीत कू रिश्ता कायम रौ,
मन की पीड़ा दूर हो,
कामना छ मेरा कविमन की,
प्यारा "पहाड़ की पिड़ा" दूर हो,
बद्रीविशाल जी की कृपा हो.....
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २०.१.२०१२
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, January 20, 2012
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