Monday, February 11, 2013

"गुड़ की भेल्ली"



हमारा पहाड़ का मनखि,
ल्ह्योंदा था ढाकर बिटि,
मर्छया भी ल्ह्योंदा था,
बाखरौं की पीठ मा,
फेर बेचदा था,
अन्न मा सांटिक,
अलकनंदा का छाला फुंड,
अपणा मुल्क लौटदि बग्त

ख़ुशी का मौका फर,
फोड़दा था भेल्ली,
हमारा पहाड़ मा,
नौना नौनि की मांगण,
होन्दि थै जब,
बल कै दिन की,
रिगड़ झिगड़ का बाद

आज बग्त बद्लिगी,
अब क्वी नि फोड़दु,
"गुड़ की भेल्ली",
अब मिठै बांटेन्दि छ
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं ब्लॉग पर प्रकाशित,
11.2.2013



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