Monday, February 11, 2013

"सुपिना मा"



कविमन मेरु,
घुमण जरूर जान्दु छ,
ऋतु मौळ्यार का औण फर,
पराण सी प्यारा वे गढ़वाल,
जख हैंसदा अर खिल्दा छन,
पहाड़ का प्रसिद्ध बुरांश लाल...

पर क्या बोन्न तब,
ब्याळी बच्यौं मैं,
बाग का मुख सी,
जब जाण लग्युं थौ,
बांज बुरांश का घनघोर,
लखि बखि बण का बीच,
फूल बुरांश कू टक्क लगैक,
देखण लग्युं थौ...

ऊबरि मैं फर दूर बिटि,
एक बाग गुराई,
भलु हो वे रीक्क दिदा कू,
कुजाणि ऊ कख बिटि आई,
यी पहाड़ का कवि "जिज्ञासु",
वैन वे बाग तैं समझाई,
सुपिना मा मेरी जान बचाई....

डौर लगि तब मैकु भारी,
आँखा खुल्यन जब मेरा,
मैं त अपणा घौर सेयुं थौ,
तब सेळी पड़ि,
ज्युकड़ि मा मेरा

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं ब्लॉग पर प्रकाशित, 12.2.2013













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